Monday, December 20, 2010

दिन में नहीं दिखतीं


दिन में नहीं दिखतीं,
रात में आराम का वक्त होता है तब दिखती हैं
बिस्तर में चींटियां रेंगती हैं,
कुरेदती हैं, उधेड़ती हैं
जिंदगी के सफरनामे में,
किए गए वादों को,
यादों को फटकार कर फिर से बिछाते हैं
चादर फिर भी नहीं मिटतीं सिलवटें
वक्त की जिन पर कभी सहेजी थी मानवता को
दुलारा था विवशताओं को,
ठहाके लगाए थे अहंकार ने अपनी हार पर,
कतार वह चलने लगी हैं फिर से चींटियां चादर पर
फिर से पैदा कर सकती हैं सिलवटेंरातों में,
एक साथ जागने की मजबूरी पैदा कर सकती हैं चींटियां
फिर, फैसलों में और वक्त क्योंउधड़ी हुई तार-तार जिंदगी
को सिल नहीं सकतीं ये चींटियांबस,
मजबूरी के साथ-साथ चलती दीखती हैं ये चीटियां।
गोविंद खरे

Monday, December 13, 2010

निगहबां बदल दीजिए

फिर वही शहर है आशियां बदल दीजिये
फिर वही बशर है निगहबां बदल दीजिए
कर दिया महंगाई ने जीने का मजा किरकिरा
फिर वही नजर है मेहरबां बदल दीजिए
खाई थीं मां के हाथों जो चाहत भरी रोटियां
फिर वही असर है, जुबां बदल दीजिए
रोशनी में रोशन था पहले भी ये चमन
फिर वही सहर है बागवां बदल दीजिए
ख्वाबों की ताबीर कभी हकीकत संवार देगी
फिर वही सफर है कारवां बदल दीजिए
रहा नहीं यकीं अब बातों का उनकी
फिर वही लहर है, दास्तां बदल

अमर मलंग