Sunday, July 12, 2009

जमाना होंठ छूने का नहीं

जमाने के साथ फिल्मी दुनिया भी तेजी से बदली है। हीरो-हीरोइनों के प्रेम दृश्य दिखाने के लिए अब फूल पत्तों का सहारा नहीं लिया जाता। किसिंग सीन ऎसे दिखा दिए जाते हैं, जैसे दोनों असल जिंदगी के पति पत्नी हों और सुहागरात मनाने की तैयारी कर रहे हैं। 1933 में फिल्म कर्मा का प्रदर्शन हुआ था। उसमें देविका रानी ने अपने असल पति हिमांशु राय को गर्मजोशी से चूमा था। लेकिन, मल्लिका शेरावत ने मर्डर में इमरान हाशमी को ऎसे चूमा मानो वे चूमने के लिए ही पैदा हुई हैं।

मल्लिका के चुंबनों ने युवाओं की नसों में उबाल लाने का काम किया। अब तो युवा दर्शक शायद भूलते ही जा रहे हैं कि होठ नाजुक भी होते हैं। हां गुनगुनाते जरूर हैं कि छू लेने दो नाजुक होंठों को...। नाजुक एहसास तो छूने से होता है। काटने से तो सनसनी ही पैदा होगी। फिर भी युवा पीढ़ी इसे बुरा नहीं मानती। उसे लगता है कि जो हो वह खुल्लम खुल्ला हो।


लुकाछिपी में हमारे देश की जनसंख्या अरब के पार हो गई। हर कोई ओपन माइंडेड हो जाएगा तो शायद सबकुछ होने के बाद भी जनसंख्या न बढ़े। वैसे भी आंखों ही आंखों में रात बिताने का जमाना शायद ही रहा हो। आंखों में देखने के बाद आखिर कब तक कोई अपने पर काबू कर पाएगा। काबू में नहीं ही होना है तो ब्रह्मचारी बनने का नाटक क्यों किया जाए। जवानी आती है। चली जाती है। जवानी को हरदम के लिए तो अपने पास रख नहीं सकते।

Wednesday, July 8, 2009

बच्चे पैदा करना ही काम नही

भारत जैसे देश में जनसंख्या नियंत्रण के पीछे का एक कारण वर्तमान पीढ़ी की बदलती सोच भी है। कुछ मामलों में तो यह पीढ़ी समाज के हिसाब से चलती है। लेकिन, बाप बनने के मामले में राय एकदम अलग है। वह जमाना अब नहीं रहा, जब सामाजिक बाध्यताओं के चलते बच्चों की संख्या बढ़ती जाती थी। अब लोग यह सोचते हैं कि कितने बच्चों की परवरिश अच्छे ढंग से हो पाएगी। यदि परवरिश करने लायक नहीं हैं, तो फिर पिता बनने की जरूरत खत्म हो जाती है।

पिता बनने का सुख तो आज की भी पीढ़ी चाहती है। लेकिन, इसके लिए वह जीवनसाथी पर किसी तरह का दबाव बनाना चाहती। न ही कैरियर दांव पर लगाने के बारे में सोचती है।कुछ ऎसा ही सामाजिकता के बारे में कह सकते हैं। पैसा कमाने की भूख तो लोगों में बढ़ती गई है। शायद यह समय की मांग भी है। क्योंकि, अब जरूरतें बदल गई हैं, बढ़ भी गई हैं। फिर भी समाज की परिकल्पना में विश्वास रखने वाले खुश हैं। उन्हें सुकून इस बात का है कि आज भी लोग खुद को समाज की नजर में इज्जतार बनाए रखना चाहते हैं।

यह बात भी सामने आ चुकी है कि अधिकांश लोग सफल पति और पिता बनना चाहते हैं।यह भी सच है कि आज युवा मनमर्जी की जिंदगी जीना चाहता है। खूब पैसा कमाना चाहता ह। जिंदगी में किसी तरह का बंधन पसंद नहीं करता। पीढियों से चले आ रहे संस्कार उन्हें अच्छे नहीं लगते। समाज को ठेंगे पर रखते हैं। लेकिन, जैसे ही शादी के बंधन में बंधते हैं। सोच में कई तरह के बदलाव आ जाते हैं। उन्हें इस बात की चिंता कहीं न कहीं से जरूर होने लगती है कि समाज वाले क्या कहेंगे। पैसे कमाने के साथ ही यह सोच भी बनती है कि पति और पिता की जिम्मेदारी कैसे निभाई जाए।

ऎसे में कहा जा सकता है कि पिता और पति की जिम्मेदारी का गहरा एहसास समाज की मान्यताओं से निकलता है। यह जरूर कह सकते हैं कि मान्यताओं को खारिज करने वाले भी बढ़ रहे हैं। लेकिन, ऎसे लोगों की संख्या कम है। आने वाले समय में भी इसमें बहुत ज्यादा बदलाव के संकेत नहीं दिख रहे। क्योंकि, दुनिया के अधिकांश देशो में सामाजिक बदलाव घूम—फिरकर फिर से पुराने ढर्रे पर चलने लगता है। कम बातें ही ऎसी होती हैं, जो बीत जाती हैं तो वापस नहीं लौटती।

Saturday, July 4, 2009

जाने कहां चली जवानी

दुनिया कहां जा रही है,शायद कहीं नहीं।संभव है कि कहीं जा रही हो।लेकिन, यहां रहने वाले कुछ लोगों को लगता है कि वे दुनिया को चला रहे हैं। कुछ को लगता है कि दुनिया उन्हें चला रही है। सब एक दूसरे को अपने से पीछे करने की कोशिश में लगे हैं। एक जुनून है, सबके मन में।कहीं हासिल करने का जुनून,कहीं पास की चीज को बचाने का जुनून।
दुनिया की अंधी दौड़ में जवानी खत्म हो रही है।जवानी का जुनून सिर्फ पाने और बचाने तक सिमट गया है।आज का युवा भी सपने देखता है।पहले का भी देखता था।आने वाला युवा भी सपनों से अलग नहीं हो सकता।फिर सपने बेमानी क्यों लगने हैं। क्या अब जवानी के सपने बूढे होने लगे हैं।क्या जवानी अब दीवानी नहीं रह गई है।कहीं जवानी की परिभाषा सिर्फ पैसा कमाना तो नहीं होती जा रही है।जवानी के सपने, जवानी की दीवानगी, जवानी के हंसी ठहाके न जाने कितनी रफ्तार से गायब हो रहे हैं। फिर भी उम्मीदें कायम हैं।जवानी की दीवनगी कम भले हो।यह खत्म नहीं होनी चाहिए।जहां इसे जाना होगा।