ham khud ko samajh rahe hain. shayad isme samay jyada lagaga. ho sakta hai ki samajh na bhi paoon. fir bhi koshish karta rahoonga. karibion ka sath bhi leta rahoonga.
Sunday, May 9, 2010
इस मौत के पीछे
निरुपमा की मौत ने कई सवाल पैदा किये हैं। क्या आज भी भारत का समाज पोंगापंथी है। क्या आज भी खुलेआम प्रेम करना अजूबा है। चलो ये मान भी लें की हमारे सवाल गलत हैं। तो क्या ये भी गलत है की समाज को शायद खुद भी नहीं पता की वह चाहता क्या है। समाज असल में वे लोग चला रहे रहे हैं जो खुद भ्रम में हैं। जिन्हें हम आम लोग कहते हैं वे तो सिर्फ चल रहे हैं। आम लोगों का सिर्फ चलते जाना ही तो समाज के लिए खतरनाक है। निरुपमा पत्रकार थी। वे बाकी लोगो को कुछ बता पातीं, उससे पहले ही समाज के ठेकेदारों ने उन्हें दुनिया से ही उठा दिया। निरुपमा कोई हस्ती भले नहीं थीं, लेकिन असमय मौत के बाद वे उदहारण जरू बन गईं। निरुपमा ने आत्महत्या की या उन्हें मारा गया है। ये तो बाद में पता चलेगा। लेकिन, उनकी मौत ने यह स्पष्ट कर दिया है की समाज अभी बहुत पीछे है। यह अभी भी बचकाना है। सिर्फ लोगों के जवान होने से कुछ नहीं होगा। समाज की सोच जवान होगी, बात तभी बनेगी।
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