दिन में नहीं दिखतीं,
रात में आराम का वक्त होता है तब दिखती हैं
बिस्तर में चींटियां रेंगती हैं,
कुरेदती हैं, उधेड़ती हैं
जिंदगी के सफरनामे में,
किए गए वादों को,
यादों को फटकार कर फिर से बिछाते हैं
चादर फिर भी नहीं मिटतीं सिलवटें
वक्त की जिन पर कभी सहेजी थी मानवता को
दुलारा था विवशताओं को,
ठहाके लगाए थे अहंकार ने अपनी हार पर,
कतार वह चलने लगी हैं फिर से चींटियां चादर पर
फिर से पैदा कर सकती हैं सिलवटेंरातों में,
एक साथ जागने की मजबूरी पैदा कर सकती हैं चींटियां
फिर, फैसलों में और वक्त क्योंउधड़ी हुई तार-तार जिंदगी
को सिल नहीं सकतीं ये चींटियांबस,
मजबूरी के साथ-साथ चलती दीखती हैं ये चीटियां।
गोविंद खरे
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