Monday, June 8, 2009

महान रंगकर्मी को अलविदा

महान रंगकर्मी हबीब तनवीर ने भी आखिरी सांस ले ली। वे चले गए। छोड गए अपनी यादें। उन्होंने रंगमंच को दिया। इसे बताने की जरूरत नहीं। सदियां याद रखेंगी कि भारत जैसे देश में हबीब तनवीर जैसा रंगकर्मी समाज को समझाने की कोशिश कितनी सिद्दत से करता रहा। लोगों ने आलोचना की। गालियां भी दी। मंच तोडे गए। फिर भी तनवीर नहीं टूटे। चलते रहे।

लोगों को सिखाते रहे। कुछ ने सीखा। बहुतों ने नहीं सीखा। फिर भी तनवीर का जीवन शायद बेकार नहीं गया। वे महात्मा गांधी बनने नहीं निकले थे। जवाहर लाल नेहरू जैसा भी उन्होंने बनना नहीं चाहा। चाहते तो कुछ और बन जाते। लेकिन, वही बने जो उनकी मूल प्रवृत्ति ने उन्हें बनने दिया।पुरस्कारों की भरमार हबीब तनवीर को वर्ष 1969 में संगीत नाटक अकादमी पुरस्कार, वर्ष 1983 में पkश्री, वर्ष 1996 में संगीत नाटक अकादमी फेलोशिप और वर्ष 2002 में पk भूषण से नवाजा गया। वे वर्ष 1972 से 1978 तक राज सभा सदस्य भी मनोनिनित किए गए थे।

उनके नाटक "चरण दास चोर" को वर्ष 1982 के अंतरराष्ट्रीय ड्रामा फेस्टिवल में फ्रिंग फ्रस्ट अवार्ड से भी नवाजा गया। जीवन धाराएक सितंबर 1923 को छत्तीसगढ के रायपुर में हाफिज अहमद खान के घर जन्मे। मैट्रिक की पढाई म्युनिस्पल हाई स्कूल रायपुर में की। 1944 में मोरिस कॉलेज नागपुर से बीए किया। अलीगढ मुस्लिम यूनिवर्सिटी से एमए की डिग्री ली। 1945 में मुम्बई गए। वहां ऑल इंडिया रेडियो में निर्देशक के रूप में काम किया। यहीं पर रहते हुए हिन्दी सिनेमा में भी कुछ अहम रोल निभाए। मुंबई में रहते हुए ही ब्रिटिश शासनकाल में इप्टा के प्रोग्रेसिव राइटर एसोसिएसशन पीडब्ल्यू से बतौर एक्टर जुडे। अंग्रेजी शासन में भी इप्टा के सदस्य रहे। 1954 में नई दिल्ली का रूख किया। यहां कुददुसिया जैदी के हिन्दुस्तानी थिएटर में बाल थिएटर में योगदान दिया। यहीं रहते हुए कई नाटकों का सृजन किया। यहां उनकी मुलाकात कलाकार एवं निदेशक मोनिका मिश्रा से हुई, जो बाद में शादी में तब्दील हुई। इसी दौरान जामिया मिलिया के छात्रों को लेकर "आगरा बाजार" का लेखन और निर्देशन किया।


भारत में उनका अभिनव प्रयोग काफी सफल रहा। विदेश-देश वर्ष 1955 में हबीब तनवीर इंग्लैंड गए। वहां रायल एकेडमी ऑफ ड्रामेटिक आट्र्स आरएडीए में एक्टिंग और वर्ष 1956 में ब्रिस्टल ओल्ड विक थिएटर स्कूल में निदेशन का काम किया। यहां रहकर वे दो वर्ष तक यूरोप की यात्रा करते हुए विभिन्न नाटकों को नजदीक से देखा। वर्ष 1958 में स्वदेश लौटे। यहां उन्होंने संस्कृत रचना शुद्रका की एक कहानी नाटय रूपांतरण "मिट्टी की गाडी" नाम से किया और छत्तीसगढी लोक कलाकारों के साथ पहला नाटक मंचित किया।


नाटकों की फेहरिस्त


आगरा बाजार

शतरंज के मोहरे

लाला शोहरत राय

मिट्टी की गाडी

गांव के नांव ससुराल, मोर नांव दामाद

चरणदास चोर

रामचरित्रा

कलारिन

पोंगा पंडित

जिस लाहौर नई देखिया

कामदेव का अपना बसंत ऋतु का सपना

जहरीली हवा

राज रक्त


सिनेमा में हबीब राही में खलनायक बने। प्रहार में सहअभिनेता। ब्लैक एंड व्हाइट में चरित्र अभिनेता से मन मोहा। चरणदास चोर में संगीत एवं स्क्रिप्ट पर चलाई कलम। आम आदमी से जुडे रहे। अंधविश्वास व आडंबरों पर प्रहार करते रहे।

5 comments:

  1. bahut achchhaa laga jo hat kar socha .jisse anjaan hai usse ru-b-ru karwaya .kalakaro ko sachchaa unhe sarahane se hi prapt hota hai .

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  2. zindagi bhee ek natak hai.unhone yahan bhee apna part jandar shandar tarike se kiya. narayan narayan

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  3. मन में अभी भी नमी बरकरार है,
    आपकी यह पोस्ट एक यादगार पोस्ट में गिनी जायेगी ।
    बेहतरीन तो है, ही !

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  4. मृत्यु एक महोत्सव हैं। इस तथ्य को वही समझ पाता हैं, जिसने अपने सम्पूर्ण जीवन त्याग, सेवा, आदर्श, सचाई और सद्चिन्तन को अपनाया-आत्मसात किया।
    महान रंगकर्मी हबीब तनवीर bhi aise hee the. sradhanjali

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